1232 Kms Review: सात दिन और सात रातों की इक उम्र, मरेंगे तो वहीं जाकर, जहां पर जिंदगी है...

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डॉक्यूमेंट्री रिव्यू: 1232 किमी

निर्देशक: विनोद कापड़ी

संपादक: हेमंती सरकार

गीत: गुलजार

संगीत: विशाल भारद्वाज

ओटीटी: डिज्नी प्लस हॉटस्टार

रेटिंग: ****

1232 Kms Review: सात दिन और सात रातों की इक उम्र, मरेंगे तो वहीं जाकर, जहां पर जिंदगी है...

इंसानी संवेदनाओं को महसूस करना और फिर उन्हें ज्यों का त्यों परदे पर उतार देना, टीवी न्यूज जर्नलिज्म का पहला सबक होता है। विनोद कापड़ी पेशे से पत्रकार रहे हैं। ‘अमर उजाला’ अखबार में नौकरी करते हुए उन्होंने मानवीय अनुभूतियों को अपनी कलम की धार बनाना सीखा और फिर तमाम टीवी चैनलों में रहते हुए उन्होंने टीवी पत्रकारों की पूरी एक ऐसी नर्सरी लगा दी, जो जहां भी पेड़ बने, छायादार ही बने। सात साल पहले बनी उनकी एक डॉक्यूमेंट्री ‘कान्ट टेक दिस शिट एनीमोर’ को सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। और, सब कुछ तटस्थ रहा तो एक नेशनल अवार्ड विनोद को और मिलता दिख रहा है, डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘1232 किमी’ के लिए।

विनोद की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘1232 किमी’ को देखना इतिहास को फिर से जीना है। पिछले साल घोषित हुए सबसे पहले लॉकडाउन और फिर इसकी लगातार बढ़ती मियादों के बीच अगर आपका अपना कोई कहीं किसी ऐसी जगह फंसा रहा हो जहां चाहकर भी आप उसे मदद न पहुंचा पा रहे हों, तो ये डॉक्यूमेंट्री देखते समय आपको कई बार रोना आ सकता है और गुलजार का लिखा, ‘मरेंगे तो वहीं जाकर, जहां पर जिंदगी है...’ एक बार सुखविंदर सिंह की आवाज में जो बजता है तो कितना भी रोकने की कोशिश करो, आंखों की कोरों से आंसू टपक ही जाते हैं।

डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘1232 किमी’ शूट करने जब विनोद निकले होंगे तो उन्हें भी गुमान नहीं रहा होगा कि वह क्या बनाने जा रहे हैं। वह बस एक जुनूनी पत्रकार की तरह अपनी गाड़ी लेकर निकल पड़े थे। डॉक्यूमेंट्री में एक जगह एक सीन है विनोद कुर्सी पर पसरे हैं। चेहरे पर कैप पड़ी है। गाजियाबाद से सहरसा जाने के लिए साइकिल से निकले मजदूरों में से एक उन्हें मोबाइल पर एक गाना सुनाता है। तय मानिए कि ये गाना शायद ही आपने पहले सुना हो। इस गाने को सुनते सुनते फिल्म के ये निर्देशक फिल्म के विषय से फिल्म के हीरो बन गए मजदूर से जो बात करते हैं, वह बातचीत आपको फिर रूला देगी।

गाजियाबाद से सहरसा तक की सात दिन और सात रात में जी गई सात मजदूरों की ये जिंदगी बड़ी नहीं है। ये 1232 किमी लंबी है। ये सतरंगी भी नहीं है। वह इसलिए कि देश की सड़कों पर तब नाट्यशास्त्र के बस दो ही रस दिख रहे थे, भय और करुणा। सरकारी मशीनरी के सामने ये बिन बुलाई आफत थी। अफसरों का तनाव सिपाही मजदूरों पर डंडों से उतार रहे थे। लेकिन, गंगा फिर भी अपने मांझी को देवदूत बनाकर भेज ही देती है। पाठक जी का ढाबा जब सबसे बड़ा मंदिर बनता है तो फिर साइकिल पर जा रहे सवारों को न बाएं पड़ने वाले मंदिर के आगे सिर झुकाना याद रहता है न दूर खेत में दिख रही मस्जिद पर दुआ मांगना। ये फिल्म बताती है कि इंसान को ऐसे काम भी करते रहने चाहिए कि उसे भी मन में कभी कभी लगे कि यही तो भगवान है..!

डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘1232 किमी’ को देखना अपने आसपास को समझना है। ये मनुष्य के मनुष्य होने की जिजीविषा का भी प्रमाण है। डार्विन के नियम ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की जब पूरी दुनिया एक साथ प्रयोगशाला बन चुकी हो तो उनके बीच कैमरा लेकर निकल जाना और ऐसी एक फिल्म बना देना भी मनुष्य होने का ही प्रमाण है। फिल्म को सिलसिलेवार तरीके से पिरोने में इसकी एडीटर हेमंती सरकार ने भी कमाल का काम किया है। विनोद वैसे तो फीचर फिल्मों के पीछे भागते रहे हैं, लेकिन ‘1232 किमी’ के बाद वह शुमार अंतर्राष्ट्रीय स्तर के डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकरों में हो चुके हैं, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या...!

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